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Summary of the Book
योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीन: | यस्य ब्रम्हिणी रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ||
जिसकी अंत:कारण वृत्ति ब्रम्हानुसंधान में मग्न है , जो योगाभ्यास करता हो या भोग में रमा हुआ दृष्टीगत हो , हजारों की संगति में हो या एकांतवास में हो , वह पूर्णानंद में आनंदरूप होकर रहता है | उपरोक्त श्लोक में वर्णित व्यक्तित्व के जिवंत स्वरूप डॉ. श्रीकृष्ण द . देशमुख उर्फ डॉक्टर काका का जन्म ११ जुलाई १९३४ को हुआ | चिकित्साक्षेत्र का व्यवसाय करनेवाले डॉ. देशमुख मुरगूड ग्राम जिला कोल्हापूर में निवास कर और अहर्निश रुग्ण -सेवा का जीवनव्रत लेकर सन १९८६ तक कार्य करते रहे है | इसके लिए उन्हे महाराष्ट्र शासन ने विशेष रूप से सन्मानीत किया है | उन्होने अपनी आयु के बावनवे वर्ष में अपना नर्सिंग -होम अपने सहकारी डॉक्टर को निस्पृह भाव से सौप दिया | अपने श्रीगुरू की आज्ञा के अनुसार तब से आज बयासी साल की आयु टाक वे अध्यात्म के प्रचार - प्रसार के लिए अनवरत व्रतस्थ है | उन्हे उनके श्रीगुरु वैकंठवासी परमपूज्य शंकर महाराज खन्दारकर , पंढरपूर से अनुग्रह प्राप्त हुआ | अनवरत आत्मसाधना , आदिशंकराचार्य प्रणीत वेद - वेदांत के अद्वैत तत्त्वज्ञान और मराठी संत साहित्य का अध्ययन , मनन और चिंतन कर उन्होने प्रवचनो , अध्यात्म - शिबिरो , अभ्यास गोष्टीयो और पुस्तोकों के लेखन के साथ ही नियतकालिक प्रकाशनो में लेखोकें द्वारा जिज्ञासुओ को प्रेरित किया है | दस प्रमुख उपनिषदो की मराठी भाषा में पद्यात्मक टीका के अलावा गीता , ब्रम्ह्सुत्र , नैष्कर्म्यसिद्धी , पंचदशी , संक्षेप शारीरिक , अद्वैत मकरंद , अपेक्षानुभूती आदी ग्रंथो पर सरळ मराठी भाषा में भी टीका लिखी है | उन्होने मराठी संत साहित्य प्र भी अनेक टीकाएँ लिखी है | समाज प्रबोधन हेतू वे भारत में ही नही विदेशो में भी प्रवास करते रहे है |